लगभग -लगभग रोज समाचार पत्रों और टेलीविजन पर किसानों की आत्महत्या की भयावह तस्वीरें और समाचारों को सुनकर मन व्याकुल हो उठता है और यह सवाल उठाता है कि क्या कारण है कि आज अन्नदाता ही अन्न से महरूम है? आखिर क्यों स्वतंत्रता प्राप्ति के 70 वर्ष बाद भी कृषक समाज की जीवन में आमूलचूल परिवर्तन नहीं दिखाई देते और वह लगातार दूसरों के लिए अन्न उगाकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर रहा है या तो दुखी जीवन व्यतीत कर रहा है? और इसी प्रश्न के आलोक में किसान समस्या पर प्रकाश डालेंगें।
भारत में कृषि क्षेत्र रोजगार प्रदान करने में लगभग 52 प्रतिशत का योगदान देता है अर्थात लगभग 65 करोड़ लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से कृषि में संलग्न है। इस कृषि की कुछ विशेषताएं हैं जैसे- निम्न प्रौद्योगिकीय कृषि, निम्न जोत, सिंचाई सुविधाओं का अभाव, संस्थागत ऋण की कमी, जागरूकता की कमी और उत्तराखंड के संबंध में इन सबके अलावा दुर्गम पर्वतीय क्षेत्र में सड़क सुविधाओं का ना होना, बाजार तक पहुंच का अभाव इस समस्या को और भी अधिक कठिन बना देता है इन सबके अलावा मानसून में कमी, अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा जैसे प्राकृतिक प्रकोप से भी किसान को किसानी लगातार घाटे का सौदा लग रही है।
एन एस एस ओ की रिपोर्ट के अनुसार किसान अपने खर्चे का केवल 30% ही किसानी से प्राप्त कर पाता है, लगभग 85 प्रतिशत किसान ऋण से ग्रसित हैं तथा इतने ही किसान 2 हेक्टेयर से कम जमीन पर कृषि कार्य में संलग्न है किसानों की मासिक आय बमुश्किल ₹6500 है और इस बदहाली की भी क्षेत्रगत विषमताएं हैं बिहार उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में यह स्थिति और भी भयावह है।
सरकार ने इन सभी कारणों जो किसानों की बदहाली के लिए जिम्मेदार हैं उनसे निपटने के लिए अनेक कदम उठाए हैं जैसे -संस्थागत ऋण के लिए 9 लाख करोड़ का आवंटन, सिंचाई सुविधाओं को मजबूत करने के लिए प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, फसल बीमा योजना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड, परंपरागत कृषि योजना, राष्ट्रीय कृषि बाजार योजना आदि अनेक योजनाएं किसानों के हित में चलाई जा रही हैं लेकिन फिर भी स्थिति अत्यंत चिंताजनक है। योजनाएं क्रियान्वयन के स्तर पर असफल सिद्ध हो रही है और समस्या वैसी की वैसी ही है। किसान एक अंतहीन दुष्चक्र में फंसता जा रहा है। महंगे बीज लेकर कृषि करने वाला किसान पहले तो मानसून के साथ जुआ खेलता है फिर प्राकृतिक आपदाओं जैसे अतिवृष्टि, बाढ़, सूखा से दो चार होता है अंततः फसल उत्पादन हो जाने पर परिवहन, सड़क समस्याओं से जूझते हुए अनेक समस्याओं से घिरी मंडी और जहां मध्यस्थों का बोलबाला है मैं अपने उत्पाद को बेचता है और लागत का 50% भी प्राप्त नहीं कर पाता और उसे मजबूरन 50% के लिए ऊंची और भारी ब्याज दरों पर गैर संस्थागत ऋण लेना पड़ता है और फिर वही क्रम। किसान इस दलदल में फंसता रहता है और अंततः किसान किसानी छोड़ने का मन बना लेते हैं कुछ अपने जीवन लीला समाप्त करके अथवा कुछ पलायन और अन्य रोजगार की तलाश में।
जरूरत है एक ऐसी नीति की जो समग्रता और संपूर्णता लिए हो जिसमें राष्ट्रीय किसान आयोग की स्वामीनाथन रिपोर्ट के महत्वपूर्ण बिंदु शामिल हो, जो किसानों की बीज खरीद से उत्पाद बेचने तक की सभी बाधाओं को दूर कर सके तथा क्रियान्वन स्तर पर और अधिक जोर दे सके। बीजों की किस्में, खाद, कृषि यंत्र जैसी बुनियादी जरूरत किसान को सही कीमत और उचित गुणवत्ता में मिल सके, कृषि सिंचाई का और अधिक विस्तार किया जाए, जोखिम प्रबंधन तथा प्राकृतिक आपदा में नुकसान का उचित मूल्य किसानों को मिलें, बाजार में मध्यस्थों को हटाने के लिए व्यवस्थागत परिवर्तन किए जाएं तथा किसानों को सामाजिक सुरक्षा कवर देकर किसानों की आमदनी को बढ़ाया जा सकता है। साथ ही वैज्ञानिक शोध और अनुसंधान में और अधिक निवेश किया जाए ताकि भावी पीढ़ी की जरूरतों के लिए उच्च उत्पादन वाली प्रजातियों का विकास किया जाए जो किसानों और खाद्य सुरक्षा दोनों को मजबूती प्रदान करेंगी। तभी 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुना करने के उच्च एवं महत्वकांक्षी लक्ष्य को हम प्राप्त कर पाएंगे।